भारत में शल्य चिकित्सा का इतिहास, वेदों मे इसकी व्याख्या। WikiHow Hindi

भारत में शल्य चिकित्सा

शल्य-चिकित्सा (सर्जरी) को लोग आधुनिक विज्ञान की देन समझते हैं, किन्तु भारतीय ऋषि सुश्रुत ने अब से सैकड़ों वर्ष पहले शल्य-चिकित्सा का सफल परीक्षण आरम्भ किया था। डॉ. एच. जे. जे. विंटर के मत में सुश्रुत अपने काल के सच्चे वैज्ञानिक थे। उन्होंने ही विज्ञान की सैद्धान्तिक और व्यावहारिक शाखाओं में समन्वय स्थापित किया था।

bharat me shalya chikitsah

शल्य-चिकित्सा के क्षेत्र में सुश्रुत ने जो कारनामे किये, उनसे वह विश्वभर में प्रसिद्ध हो गये। उनका कार्य क्षेत्र काशी विश्वविद्यालय था। उन्होंने अपने ग्रन्थ ‘सुश्रुत संहिता’ में शल्यक्रिया (ऑपरेशन) के सभी उपक्रमों को विस्तृत रूप से लिखा है।

उस काल के समाज में अनेक अपराधों का दण्ड नाक काटकर दिया जाता था। सुश्रुत प्लास्टिक शल्य-क्रिया द्वारा कटी नाक को फिर से जोड़ देते थे। ऐसी शल्य-चिकित्सा करने वाले सुश्रुत ही संसार के पहले चिकित्सक थे।

कानों में भारी चीज पहनने से कान कट जाते हैं। उनकी प्लास्टिक शल्य-चिकित्सा करने में भी सुश्रुत माहिर थे। इनकी शल्य-क्रिया विधि का अध्ययन करने के बाद जर्मन शल्य चिकित्सक डॉ. हिर्चबर्ग ने कहा था कि महान् भारतीय शल्य-चिकित्सा की विधियाँ जब यूरोप को ज्ञात हुई तो यूरोप की शल्य-चिकित्सा ने एक नया मोड़ लिया। जीवित त्वचा को एक स्थान से काटकर दूसरी जगह लगाना पूर्णतया भारतीय तरीका है।

200 वर्ष पूर्व कुछ कागजात मिले हैं जिनसे पता चलता है कि सुश्रुत को आँखों तथा उनके रोगों का विस्तृत ज्ञान था। वही पहले चिकित्सक थे, जिन्होंने आँखों के रोगों और उनके इलाज के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी दी। वही पहले शल्य-चिकित्सक थे जिन्होंने मोतियाबिन्दं की सफल शल्य-चिकित्सा की थी। आँखों के अनेक रोगों के सम्बन्ध में उनका जो मत था, वह आज तक माना जाता है।

सुश्रुत को 1120 बीमारियों और 760 वानस्पतिक औषधियों का ज्ञान था। वह यह भी जानते थे कि मनुष्य के शरीर में 300 हड्डियाँ, 210 जोड़, 70 रक्त नलियाँ और 9 ज्ञानेन्द्रियाँ होती हैं। वह शल्य-क्रिया के लिए बीमारों को बेहोश करने की किसी सूंघनेवाली दवाई के सम्बन्ध में भी जानते थे ।

आयुर्वेदिक काल में चिकित्सा शास्त्र के आधार पर शरीर शास्त्र पर भी गहन अध्ययन हुआ। अथर्ववेद में मानव शरीर की अस्थियों की गणना की गई। शतपथब्राह्मण में मानव शरीर की हड्डियों की संख्या 360 बताई गई है। उसके एक मन्त्र में कहा गया है कि शरीर भी अग्नि-कुण्ड है। जिस प्रकार वेदी में 360 ईंटें लगती हैं, उसी प्रकार शरीर में 360 हड्डियां हैं। इन 360 हड्डियों में उस समय 32 दाँत और नाखून भी सम्मलित किये गये थे, जिन्हें आगे चलकर सुश्रुत ने हड्डियों की श्रेणी से पृथक कर दिया।

Read More  कुछ लोग नींद में क्यों चलते हैं? WikiHow Hindi.

प्रत्येक जीवित प्राणी के लिए भोजन नितान्त आवश्यक है। इस भोजन पर शरीर में क्या-क्या क्रियायें होती हैं और अन्त में वह किस प्रकार हमारे शरीर में प्रयोग होता है, इस विषय पर भी प्राचीन भारत में बहुत खोज-बीन हुई। खाना खाने के बाद भोजन बहुत लम्बी भोजन की नली में जाता है जिसे महास्रोत कहा गया। आमाशय में एक चिकना लेसदार रस भोजन में मिलता है और फिर एक अम्लीय रस भोजन पर प्रक्रिया करता है । आमाशय में से यह भोजन एक ग्रहणी नाड़ी द्वारा पित्ताशय में पहुँचता है और फिर वहाँ से छोटी अन्तड़ियों में पहुँचता है। इन स्थानों में पित्त द्वारा भोजन का स्वरूप बदला जाता है। वहाँ से भोजन के तत्त्व धमनी द्वारा पहले हृदय में जाते हैं, बाद में यकृत (जिगर) में, जहाँ पित्त द्वारा पोषित भोजन रक्त में परिवर्तित हो जाता है। इस प्रकार प्राचीन भारत में पाचन-क्रिया आदि के विषय में धारणाएं बनी हुई थीं। आधुनिक विज्ञान ने पाचन-क्रिया के सम्बन्ध में हमें जो जानकारी दी है। उससे हमारी ये प्राचीन धारणाएं बहुत मिलती हैं।

चरक और सुश्रुत आदि ने हृदय और हृदय से सम्बन्धित नलियों पर भी विचार प्रकट किये थे। धमनी, शिरा और स्रोत आदि तीन प्रमुख नलिकाओं के विषय में भी उन्होंने बताया।

प्राचीन भारत में मस्तिष्क से सम्बन्धित अनेक धारणाएं प्रचलित थीं। चरक और सुश्रुत हृदय को चेतना-शक्ति का केन्द्र मानते थे। परंतु तांत्रिक युग में मस्तिष्क और सुषुम्ना को चेतना का केन्द्र माना जाने लगा। मस्तिष्क में एक विशेष छिद्र होता है जिसे ब्रह्मरंध्र कहते हैं। आत्मा या जीव को इसी ब्रह्मानंद में स्थित बताया जाता है। मस्तिष्क के नीचे एक खोखली सुषुम्ना होती है जो मेरुदण्ड में एक छोर से दूसरे छोर तक फैली रहती है । सुषुम्ना के इधर-उधर इडा और पिंगला जैसी अनेक नाड़ियाँ होती हैं।

Read More  स्टेथेस्कोप कैसे कार्य करता है? WikiHow Hindi

19वीं शताब्दी के अन्त में एक बार बम्बई में भयंकर प्लेग फैला। लोग धड़ाधड़ इसके शिकार होने लगे। उस समय तक पश्चिमी वैज्ञानिक यह तो जान चुके थे कि चूहों में पाये जाने वाले एक प्रकार के जीवाणुओं से प्लेग होता है। लेकिन तब तक इसे रोकने की कोई औषधि तैयार नहीं की गई थी। इसी समय 1893 ई. में, भारत सरकार ने ब्लादिमीर मर्देकहि ओल्फ हाफकिन की सेवायें प्राप्त कीं। हाफकिन रूस के रहनेवाले थे और उनका जन्म ओदेस्या में 1860 ई. में हुआ था। बम्बई के इस भयंकर प्लेग को रोकने के लिए हाफकिन को सौंपा गया। हाफकिन तन-मन से इस रोग को दूर करने में लग गये। इन्होंने प्लेग के जीवाणुओं को मारकर प्लेग का टीका लगाने की दवा तैयार की थी।

जब दवा तैयार हो गयी तो 10 जनवरी 1897 ई. को हाफकिन ने इसका प्रयोग करने की सोची। उन्होंने सबसे पहले अपने ही इस औषधि की सूई लगाई। सूई लगाते ही उन्हें भयंकर कष्ट हुआ। जोर का बुखार चढ़ आया, लेकिन वह घबराये नहीं। शान्ति से परिणाम की प्रतीक्षा करते रहे। दो दिन बाद ही उनका बुखार उतर गया और वह पूर्णतया स्वस्थ हो गये। उनकी खुशी का ठिकाना नहीं था। उन्होंने मानवता की महान् सेवा की थी। संसार के सबसे भयानक रोग से बचने का उपाय उन्होंने ढूंढ निकाला था और यह महान् खोज हमारी भारत भूमि में ही हुई थी। बाद में तो हाफकिन ने हैजे से बचने की सूई का भी पता लगाया।

1925 ई. में हाफकिन के सम्मान में बम्बई की जीवाणु प्रयोगशाला का नाम बदल कर ‘हाफकिन इन्स्टीट्यूट’ कर दिया गया। इस महान् चिकित्सक का देहान्त 1950 ई. में स्विट्जरलैंड में हुआ ।

Read More  सोडियम के ऊपर जल डालने पर उसमें आग क्यों लग जाती है? WikiHow Hindi

मलेरिया भी संसार का एक भयानक रोग है। इसके कारण अनेक देशों के इतिहास बने और बिगड़े हैं। अनेक शहर और गाँव नष्ट हो गये हैं। भारत में ही कुछ समय पहले तक इस रोग से लगभग एक करोड़ व्यक्ति बीमार पड़ते थे और उनमें से लगभग 10 लाख मर जाते थे। लेकिन अभी 100 वर्ष पहले तक तो कोई यह भी नहीं जानता था कि मलेरिया क्या होता है ? यहाँ यह उल्लेखनीय है कि सुश्रुत संहिता में मलेरिया की चर्चा की गई है और यह भी बताया गया है कि यह रोग एक प्रकार के मच्छरों से होता है। किन्तु पश्चिमी वैज्ञानिक अब तक यही समझते रहे कि दलदल भरे स्थानों की गन्दी हवा ही मलेरिया का कारण है ।

1880 ई. में फ्रांसीसी सेना के एक डॉक्टर अल्फाजों ने पता लगाया कि यह रोग एक प्रकार के एक कोशीय जीवों के कारण होता है, लेकिन ये जीव मानव-शरीर में कहाँ से आते हैं, इसका पता रास और ग्रासी ही लगा सके।

रास का जन्म भारत में हिमालय की तराई में 1857 ई. में हुआ था। वह एक अंग्रेज जनरल के पुत्र थे। उन्होंने विलायत जाकर डॉक्टरी पास की।

इंग्लैंड में उनकी भेंट मैन्सन से हुई। मैन्सन फाइलेरिया के कीड़ों का पता लगा चुके थे। उन्होंने रास को बताया कि फाइलेरिया की तरह मलेरिया के जीवाणु भी मच्छरों में मिल सकते हैं।

रास ने एक बार फिर प्रयत्न किया और कलकत्ते की एक प्रयोगशाला में काम करने लगे। पहले उन्होंने उन चिड़ियों का अध्ययन किया जिन्हें मलेरिया हुआ था। उन्होंने पता लगाया कि मलेरिया के कीटाणु रोगी चिड़िया के रक्त में रहते हैं। जब मच्छर चिड़िया का रक्त चूसता है तो ये कीटाणु भी मच्छर के शरीर में आ जाते हैं और वहाँ बढ़ते रहते हैं। यह मच्छर जब किसी स्वस्थ चिड़िया को काटता है तो ये कीटाणु उस चिड़िया के शरीर में प्रवेश कर जाते हैं और उसे मलेरिया हो जाता है।

1899 ई. में रास ने घोषणा की कि मलेरिया मच्छरों के काटने से होता है।

Leave a Reply